Saturday, 17 September 2016

पोथी पर ताला अब न होगा लाला



अख़बार वाला हमारे यहाँ अखबार ज़रा देरी से डालकर जाता है। इसलिए ताज़ा सुबह में बासी खबर का मज़ा नहीं ले पाती। अब जबकि अखबार हाथ में आया तो घड़ी में दो बजने जा रहे हैं। ज़ुबान हिन्दी है तो हाथ खुद से हिन्दी अखबार का ही चुनाव करते हैं। 


पहले पन्ने पर अब खबरें नहीं रहा करती। अब उन्हों ने दूसरी मंजिल पर बसेरा कर लिया है। पहले पन्ने पर आज कोई राइज़ रिज़ॉर्ट रेजीडेंट वालों का विज्ञापन छपा है। बहरहाल यह विज्ञापन मेरे लिए नहीं है। इसलिए अखबारी पन्ना पलट रही हूँ तो पहली खबर किताबें और उसकी फोटोकोपी से जुड़ी है। मामला कुछ वही है जो आप सभी लोगों को पता है। तीन अन्तर-राष्ट्रीय प्रकाशन घरों ने अपनी किताबों के प्रकाशन के अधिकार के मद्देनजर दिल्ली विश्व-विद्यालय के उत्तरी परिसर में मौजूद रामेश्वरी फोटोकॉपी सर्विस के खिलाफ याचिका दायर की थी कि उनकी किताबों के फोटोकॉपी के चलते उन्हें भारी नुकसान हो रहा है और यह प्रकाशन अधिकार का उल्लंघन है। इसके बाद 2012 में उनकी किताबों के फोटोकॉपी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब यही प्रतिबंध कल शुक्रवार यानि 16 सितंबर 2016 को उच्चतर न्यायालय ने हटा दिया। न्यायालय ने कहा-

“शिक्षा महत्वपूर्ण सामाजिक जरूरत है। साहित्य की भाषा में कहें तो कॉपीराइट कोई ऐसा अपरिहार्य, पवित्र, या नैचुरल अधिकार नहीं है जो लेखकों को अपनी कृतियों पर पूर्ण अधिकार देता हो। किसी भी कानून की तरह इस तरह व्याख्या नहीं की जा सकती कि मानवीय बेहतरी की प्रक्रिया फिर से पुरानी स्थिति में लौट जाये। अगर फोटोकॉपी की सुविधा नहीं मिलेगी तो बच्चों को घंटों तक लाइब्रेरी या अपने घरों में बैठकर नोट्स बनाने पड़ेंगे। बच्चों को आधुनिक तकनीक का फायदा उठाने से रोकना सही नहीं होगा।...जब आधुनिक तकनीक उपलब्ध है तो स्टूडेंट्स को पुराने जमाने की तरह पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।” (अखबार में छापे शब्द) 



कुछ समय पहले मैंने हिन्दी का चर्चित उपन्यास कितने पाकिस्तान पढ़ा था जिसके लेखक कमलेश्वर हैं। उपन्यास बेहद प्रभावी है और हिन्दी पाठकों में लोकप्रिय भी है। लेकिन मैं बात उपन्यास की नहीं करूंगी। बात आज यहाँ उसकी भूमिका की होगी। उन्हों ने किताब की प्रत्येक छपाई पर उसकी भूमिका लिखी है। एक भूमिका के शब्द बिलकुल याद नहीं हैं फिर भी कुछ दिमाग में अटका रह गया है। उन्हों ने यह लिखते हुए अत्यंत प्रसन्नता दिखाई है कि उनकी किताब के पढ़ने के लोग इतने इच्छुक हो गए हैं कि वे उसकी फोटोकॉपी कर कर के पढ़ रहे हैं। इस बात से उस किताब के प्रकाशक बहुत दुखी जरूर हैं पर कमलेश्वर साहब को इसका कोई मलाल नहीं कि उन्हें इसका घाटा होगा या आमदनी पर असर पड़ेगा। जब मैंने यह सब पढ़ा तब सही मायनों में यह जाना कि लेखन एक बार अगर पाठक के हाथों में पहुँच गया तब उस पर पढ़ने वाले का अधिकार हो जाता है। यही कृति की आज़ादी भी है। 




ज्ञान को तिजोरी में हरिसन या गोदरेज़ ताले में कैसे रखा जा सकता है! मुझे यह कॉपीराइट का मसला उतना समझ भी नहीं आता। इस पर पर्याप्त बहस की जा सकती है। लेकिन एक लेखक से पूछिए कि वह क्या चाहती या चाहता है। इसी तरह के बेहूदे नियम बना बना कर फलां जाति तो फलां लिंग को पढ़ने-पढ़ाने के हक़ से मरहूम किया जाता रहा है।
शुक्र है कि समय बदल गया है। आप जितनी भी गालियां दीजिये या जितने भी प्रकाशन घरानों के हक़ में दलीलें दीजिये, मैं इस फैसले का खुश दिल से स्वागत करती हूँ। यदि मुझे कोई किताब बेहद पसंद आई तब मैं भी उसकी फोटोकॉपी करने से पीछे नहीं हटूँगी। मेरे पास वैसे कुछ अच्छी किताबों की नक़ल मौजूद है।        

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