मैं कहाँ रहूँ
शहर में रहूँ
घर में रहूँ
दिलों में रहूँ
या फिर कहीं नहीं...
"पिछले कुछ समय से अपने आसपास एक आँधी सी महसूस करती हूँ। लगता है कहीं भाग रही हूँ और मज़े की बात यह है कि मैं बिना सोचे समझे भाग रही हूँ। ...क्योंकि सब भाग रहे हैं इसलिए मैं भी भाग रही हूँ। अपने आप को नित नई सूचनाओं से भर रही हूँ। जैसे खाली मटके में पानी भरा जाता है।...
किसी को किन्हीं किताबों पर बात करते हुए सुनती हूँ तब शर्म आती है कि मेरी जानकारी एक चने के बराबर है। कोई जब पलटकर पूछता है कि तुमने फलाना किताब पढ़ी है, तब जबान पर जैसे किसी ने वज़न रख दिया हो, ऐसा मालूम होता है।...
आसपास सब पढ़े लिखे लोग हैं। उनकी तालीम और इल्म के क्या कहने! उनकी जबान से अल्फ़ाज़ निकलते हैं भी तो किसी किताब की पवित्र पंक्तियाँ ही होती हैं।...
इसके चलते सूखे हुए पत्ते की तरह महसूस करने लगी हूँ। यह पत्ता ऐसा है कि वेसलिन भी घस लूँ तब भी नरमी वापस नहीं आएगी। ...सो मुरझाने से अपने को बचाने की कोशिश की है। मुझे तो लगा था इंसान बनना ही काफी है। लेकिन सच यह नहीं है। अब मुझे सफलता का राज पता चला है कि बस 'नोलेज्बल' बनना ही 'बेस्ट' माना जाता है। सपने देखने की कला तो फूहड़ों की निशानी है। आलसी और निष्क्रिय ही ख्वाब देखा करते हैं।
...मैंने उससे हैरानी से पूछा, "क्या बक रही है? दिमाग का ठिकाना तो ठीक है न?"
वो मेरे पास से उठते हुए बोली, "चल बाद में मिलते हैं। अभी एक अच्छी किताब हाथ लगी है।"
मैंने कुछ नहीं कहा। बस उसे जाते हुए देखा।
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