Thursday, 15 September 2016

...लेकिन


कल हाथ घड़ी में समय देखा तब 3 बजकर 39 मिनट हो चुके थे। मैंने अपने आप को दिल्ली के एक नामी कॉलेज में पाया। मैं भी एक साक्षात्कार का हिस्सा बनने गई थी। मुझे कुछ बातें बेहद दिलचस्प लगी। मेरे लिए यह सब नया था। चूंकि मेरी पढ़ाई लिखाई कुछ समय के लिए रुकी भी रही इसीलिए मेरी जुबान में पढ़ाई लिखाई के शब्द कम जमे पाये जाते हैं। मेरी नजरें भी अभी साहित्यिक नहीं बन पाई हैं। लेकिन मैं भरपूर कोशिश में हूँ कि अपनी समझ का क्षेत्र बढ़ाऊँ।

कल जिस बड़े से हॉल में हमें (सभी साक्षात्कारी) बैठाया गया था उसके प्रवेश दरवाजे के ठीक ऊपर काली पट्टी पर अंग्रेज़ी में स्टाफ़ रूम लिखा था। हॉल काफी बड़ा था। चौड़ाई कम पर लंबाई अधिक थी। कमरे से घुसते ही सीधे हाथ की ओर सामने वाली दीवार पर बाबा साहेब की इकलौती बड़ी फोटो लगी हुई थी। फोटो में बाबा साहेब कुर्सी में बैठे थे। हल्का मुस्कुरा रहे थे और ठीक पीछे की तरफ कलाकार ने किताबों के शेल्फ का चित्र बनाया था। कुल मिलाकर चित्र बड़ा प्रभावी था। इस चित्र के बगल में ज़रा सा नीचे की ओर पेंडुलम वाली दीवार घड़ी टंगी थी। सच्ची बोलूँ, मैंने ऐसी घड़ी सिर्फ फिल्मों में देखी थी। इसलिए आज साक्षात दर्शन कर मैं अभिभूत सी ही हो गई थी। घड़ी का रंग हल्का पीला था। पेंडुलम चमकीला और सोने के रंग का था। पेंडुलम की गति इतनी सधी हुई थी कि वह एक निश्चित माप से दायें और बाएँ ही जा रहा था। गज़ब। मुझे ऐसे यंत्र बहुत पसंद है। मेरे घर में ऐसी घड़ी हो तब मैं शायद अपना बहुत सा समय घड़ी देखने में ही बिता दूँ।

दिवारों पर बाकी कब्ज़ा कई नोटिस बोर्ड ने किया हुआ था। उनके रंग पर ध्यान ही नहीं गया। वहाँ बहुत से ए 4 माप के सफ़ेद कागज चिपके हुए थे। बाकी कुछ दिवारों पर ऐसा नहीं था। उनका रंग फीका हो चुका था जो पीला था। आपने एक रुका हुआ फैसला हिन्दी फिल्म देखी होगी। यह कमरा जिसे स्टाफ़ रूम बताया गया था थी वैसा ही था जैसा इस फिल्म में दिखाया गया कमरा था। कमी तो बस बड़े से टेबल की थी। इस बैठक में बिस्कुटी रंग की ढेर सारी कुर्सियाँ थीं जिन पर हम सब विराजमान थे।

छत पर लटके हुए आठ पंखें थे जिनकी हवा हम तक पहुँच ही जा रही थी। हवा ठंडी थी। बाद में वातानुकूलित का पता। इसके बाद समझ आई कि पंखें ठंडी हवा क्यों उगल रहे हैं।

अब बात साक्षात्कारियों की। सभी लोग बहुत अच्छे लग रहे थे। मैंने उनके चेहरों में उम्मीद की चमक देखी। पुरुषों और कुछ युवा लड़कों ने औपचारिक पहनावा पहना था। सफ़ेद कमीज और पतलून। महिलाओं और युवा लड़कियों ने कमीज सलवार और साड़ी पहनी थीं। सभी के पास अपनी साहित्यिक कमाई हुई पूंजी, उनके थीसिस, छपे हुए लेख और किताबें आदि थीं। कुछ चेहरे बात भी नहीं कर रहे थे। कुछ तनाव में बैठे थे जो मुखड़े पर नज़र आ रहा था। कुछ बार बार घड़ी देख रहे थे। पूरा कमरा बातों से भरा हुआ था। जिन लोगों के साक्षात्कार होते जाते वे पुछने पर यह बताते कि क्या क्या पूछा गया। साक्षात्कार देने के लिए जो महिला मेरे आगे बैठी, ने मुझे अचानक कहा- अब मुझे टेंशन हो रही है। मैं सब भूल गई कि मैंने क्या क्या पेपर पढ़ाया है! मैंने उन्हें बदले में यही कहा कि घबराइए मत। शांत रहिए। आप पढ़ा चुकी हैं। अनुभव से ही बताइएगा।
                           कॉलेज के अंदर का गलियारा, समय 7 बजकर 15 मिनट

जब मेरी बारी आई तब तक शाम और रात के 7 बजकर 23 मिनट हो चुके थे। साक्षात्कार लेने वाले भी थक चुके थे और मैं भी देने के विचार में नहीं थी। मैं अंदर गई तब शायद 5 की संख्या में जानकार लोग बैठे थे। मेरी दिलचस्पी नहीं थी उनसे बात करने की। मैंने कमरे को देखा पर ध्यान से नहीं देख पाई। थके लोग और थकी हुई लड़की क्या बात करेंगे! मुझसे दो ही सवाल पुछे गए, मुझे एक का ही जवाब आता था, एक का नहीं। मैं हल्का मुस्कुराई और दरवाजा खोल कर बाहर आई। जब बाहर की तरफ आई तब हल्की बढ़ती हुई रात की हवा चल रही थी। सच में मैंने भरपूर सांसें भरीं। अब तक मेरा सिर दर्द बहुत बढ़ गया था। न मुझे दुख था, न तनाव हुआ। दिमाग में कुछ नहीं चल रहा था बस दर्द चल रहा था।     



...लेकिन फिर भी साक्षात्कार देती रहूँगी।



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